मिथकों की दुनिया
खाप शब्द से ही चिड़ने वालो का तर्क सीधा है. उनका कहना है कि खाप प्रणाली बीते ज़माने कि सामंती प्रथा है जिससे गॉव के गंवार लोग बेमतलब चिपटे बैठे हैं और बेसिर-पैर के फैशले सुनाते रहते हैं. इससे देश के पिछड़ेपन कि बू आती है. भारत को अब बलवान तथा आधुनिक जगत का सिरमौर बनंना है. ऐसी संस्था व ऐसे आचरण से देश कि तौहीन होती है. खाप को निशाना बनाने का मुख्य प्रसंग कथित ऑनर किलिंग का बना। अभियान बीते लगभग पन्द्रह साल से चला है। किन्तु, देश-प्रदेश में खाप का चलन हजारों साल से है। कथित ऑनर किलिंग भी बीते बीस साल से ही होंने लगी हों, ऐसा नहीं है। इसलिए ऑनर किलिंग का प्रसंग लेकर खाप को निशाना बनाये जाने का यह समय चुनना खास मायने रखता है जो अभियान के मकसद को समझने के लिए काफी है। इसका खुलासा एक R T I से भी हुआ जिसमे पूछा गया था की 2001 से 2011 तक खापों से कितने ऑनर किलिंग किये हैं, यहाँ अभियान कुछ खास नहीं कर पाया और इन 10 वर्षों मैं हरयाणा के किसी भी थाने मैं एक भी मामला तक भी दर्ज नहीं मिला.
विश्लेषण करें तो खाप पर आपेक्ष लगते हैं कि खाप सामंती युग की पर्था है, खाप एक गंवार, निर्मम व जाहिल लोगों का संगठन है, गांव व उनकी खाप देश की तरक्की मैं रुकावट है, संविधान मैं जिस बात का उल्लेख नहीं उसे जीने का अधिकार नहीं, सगोत्र विवाह को रोकना जाहिलपन है, इक्कीसवी सदी मैं तालिबानी खापों की जगह नहीं, खाप मैं जाट दबंगई व गरीब समाज के लिए खतरा, हरयाणा, दिल्ली,राजस्थान व पश्चिम उत्तरप्रदेश तक ही खाप सिमित हैं, खाप जातिवाद को बढ़ावा देती है, खाप मैं भाईचारे की सोच गवांर सोच है, खाप मैं दलित व नारी की कोई सुनवाई नहीं, नारी के लिए आदमी की जरूरत सिर्फ यौन संतुष्टि के लिए घर-बार व सामाजिक रिश्ते फिजूल की बकवास है, नारी व दलितों को खाप पंचायत मैं नहीं सरकारी अदालतों, थानों प्रसाशनिक अधिकारीयों से ही न्याय मिलेगा.
खाप प्रथा पर सबसे बड़ा हमला घर से भगोड़े कथित “प्रेमी युगलों” का हत्याओं के बहाने शुरू किया गया है. आरोप है कि जाहिल खाप पंचायतें ‘ऑनर’ के लिए प्रेमियों कि निर्मम हत्या कर रहे हैं. इन पर कानूनी पाबन्दी लगे इन्हे अपनी बात कहने का हक़ किस लिए? यह टिपण्णी सुप्रीम कोर्ट मैं एक बहस के दौरान है
खाप प्रथा पर कुछ समय से निरंतर लग रहे उपरोक्त प्रमुख आपेक्षों को पैर देने के लिए कुछेक मिथकों को घड लिया गया है. इन मिथकों के बिना यह अभियान चार दिन तक नहीं टिक सकता था सो बड़े कायदे से इन्हे गढ़ा गया है इनकी असलियत को जानते समझते हुए भी बार बार इन्हे दोहराते हुए अभियान जारी है
इनमे एक मिथक यह बना है की देहाती लोगो की खाप कोई संस्था नहीं है, निर्विवाद सच यह है कि खाप कोई संस्था या संगठन नहीं है, यह ग्रामीण भारत के जीने कि प्रणाली है जिसके चलन पर देहात के लोग आदतन आचरण करते हैं. संस्था अथवा संगठन का कोई स्थाई विधि-विधान रहता है, कोई न कोई स्थाई नेतृत्व होता है. खाप को संस्था या संगठन मान लिया जाय तो इसके फिर किसी वयक्ति या समूह द्वारा बने जाने का प्रश्न उठेगा, उसकी मंशा को बताना होगा व इसके किसी एकल स्वरूप या नेतृत्व कि बात भी उठेगी जो इसकी धारणा के विरुद्ध है
तथ्य इसके उल्ट है. खाप का विकास आपसी मिलवर्तन, संवाद, मंथन एवं निर्णय लेने की प्रथा से हुआ, जिसका न कोई एक निर्धारित स्वरूप है, न कोई नियामवली है जो इसे बांधे. इसमें पहले किसी स्थाई नेता अथवा मुखिया बनाने का रिवाज था. अगर आज जहाँ कहीं देखने को मिलता है वह पराया बोझ अथवा रोग है. यह मिथक अनजान व्यक्ति के दिमाग मैं किन्ही स्वयंसेवी संस्था जैसे चित्र को पल कर विचार करने का संकेत देता है, जो खाप मैं नहीं है.
खाप प्रणाली पर आपेक्षों की खुलकर निष्पक्ष चर्चा होनी चाहिए. इसके लिए स्थिति समझ लेनी होगी. स्थिति का पहला पक्ष है की आपेक्ष लगाने वाले लोग कुछ बेतुके मिथक खड़ा करके अपना अभियान चला रहे हैं. कुछ बातों को, कुछ बेतुके लांछनों को ये लोग सच मान कर चले हैं उन पर मीमांसा से बच कर बात हो रही है, सहूलियत के अनुसार आये दिन तर्क बदल रहे हैं. बहस का ये बेतुका आधार है. स्पष्ट लगता हैं कि इनका खास व सधा-सधाया मकसद है. इसे स्पष्ट नहीं कर रहे. लुकाछिपी का खेल है. इसलिए मीमांसा मैं थोड़े विस्तार कि आवश्यकता है.
आपेक्ष लगाने वाले अनेक रंग के लोग हैं.कुछ कथित प्रगतिशील है जो इस प्रणाली कि बात उठाते ही लाल पिले हो जाते है और विपक्ष मैं खड़े हरेक को बाबा आदम के ज़माने का मोह पालने वाले बताकर लताड़ रहे होते हैं ये महानुभव खाप को सामंती कह कर प्रगति मैं रोड़ा बताते हैं.इनके लिए प्रगति का अर्थ संस्कृति को रोंदते हुए पूंजी शाही को मजबूत करना है. ऐसे लोगो के हिमायती अख़बार वाले अथवा वे बुद्धिजीवी हैं जिन्हे हर सवाल मैं पश्चिमी दुनिया के उधोग-व्यापर मैं प्रगति तलाशने कि आदत है. इनके चलते देश कि अपनी माटी मैं झाँकने से इन्हे सख्त परहेज है और उधार कि सोच पर इतराते व पलते आ रहे हैं.
मिथक बड़े जतन के साथ बना के रखा गया है कि खाप का संबंध जाट जाति से है. “ऑनर किलिंग” के सवाल पर खाप को निरंतर जाट जाति के साथ जोड़ कर पेश करने कि मंशा देहात को जाट बनाम अन्य मैं बाँट कर पेश करने की है. जबकि ऐसी हत्याओं मैं ग्रामीण क्षेत्र ही नहीं शहरों मैं भी बसने वाले अनेक जातियों के मामले शामिल हैं. यह लड़ाई जितने की किलेबंदी है. देहात बनाम शहरी सभ्यता के बीच के युद्ध को वे जाट बनाम अन्य के बीच बदलने के लिए पसीना बहा रहे हैं. इसके लिए जाट जाति को निशाना बना कर भाव पैदा कर रहे हैं की दूसरी जातियां शहरी तहजीब की हिमायत मैं आगे आएं. यह देहात को जाति के आधार पर बाँट कर रखने की दलील है. ये नासमझ लोग बता रहे हैं की यह मामला हरयाणा, पंजाब, उत्तरप्रदेश, राजस्थान जैसे ‘जाट हार्टलैंड’ तक सिमित है. लेकिन नहीं बंधू , पूंजी मैं अमरीका, फ्रांस थाईलैंड आदि जिन कुछेक देशों मैं नारी के शरीर को मनोरंजन बाजार मैं खरीदने बेचने का खुला खेल बना लिया है उनको छोड़ कर, कथित तीसरी दुनियाँ के देशों मैं नारी व पुरुष के बीच सदाचार परिवार की प्रतिष्ठा का एक प्रमुख आधार है.कदाचार पर परिवार की प्रतिष्ठा दाव पर रहती है.
खाप एक पद्धति/प्रथा है जिसका हर कौम अपने मामले सुलटाने के लिए बिरादरी की मदद हेतु प्रयोग करती हैं. सब जातियां-बिरादरियां मैं यह प्रचलित प्रथा है. नाम अलग-अलग हो सकते हैं. इसकी कार्यप्रणाली ऐसी है की निर्णय न मनमाने होते हैं, न हो सकते हैं. खाप का संचालन अनुभव पर टिकता है.गवाँर व्यक्ति को वजन नहीं मिलता. यदि अनपढ़ होने को ही गवाँर माना जाता है तो उनकी बुद्धि पर तरस खाने के अतिरिक्त रास्ता नहीं है. यह विकृति ही नहीं, राजा होने का दम्भ है. बिरादरी की पंचायत मैं बैठकर निर्णय लेने वाले लोगों का सम्मान होता है जो अपने अनुभव व निष्पक्ष निर्णय लेने के लिए विख्यात होते है. लोग जिसे स्वीकार करते हैं तभी बात आगे बढ़ती है. सरकारी कर्मचारी की तरह रिश्वत या पैरवी की यहाँ कोई जगह नहीं होती. खाप की अपनी विशेषता है. अन्यथा उसे लोगों का वह समर्थन नहीं मिल सकता जो उन्हें हासिल है.
एक मिथक बना कि खाप के जरिये धनवान लोग गांवों के गरीबों पर हुकूमत चलाते हैं जिसमें अनुसूचित जाति सबसे ज्यादा पिसती है, लेकिन सत्य है कि बिरादरी कि खाप मैं केवल बिरादरी के लोग ही बैठते हैं. अगर गाओं का कोई मामला है तो सारी बिरादरी खाप मैं हिस्सा लेंगी और अपनी बात रखने का पूरा अधिकार रखते हैं, यहाँ पर सरकारी निर्णय थोपने कि कोई जगह नहीं है. जितनी भी बैठक हो जाये, सहमति बनने पर ही फैसला सुनाया जायेगा. पूंजी कि सत्ता व इसके राजकाज के चलते आज के दौर मैं खाप प्रणाली मैं घुस आई अनेक कमजोरियों के बावजूद खाप पंचायतों के अधिक व्यवहार मैं जनतांत्रिक व्यवस्था कहीं नहीं है. वातानुकूलित कमरों मैं बैठ कर या फिर उन्हें अज्ञानी सूत्रों पर भरोसा कर के खाप को जांचने परखने वालों को ही इनके गैरजनतांत्रिक होने का दर सताता है. जो जमींन पर चलते हैं वो इस तथ्य को जानते हैं. यह संभव है की किन्ही दो बिरादरियों की खाप के बीच तीव्र मतभेद उभरने से तनाव खड़ा हो, किन्तु इसे सुलटाने के लिए भी ग्रामीण भारत की तहजीब मैं सरोकार जिन्दा है.
मिथक बना कर रखा है कि खाप पंचायत निर्दयी निर्णय लेती है और ये जाहिल लोग अथवा आधुनिक जनतंत्र व संविधान की समझ से अनभिज्ञ है. इस मिथक के पीछे उद्योग-व्यापार की छलकी सिखने-सिखाने वाली शिक्षा का गरूर काम करता है सर्वमान्य तथ्य है कि यह शिक्षा विद्द्या नहीं है यह शिक्षा पूंजीपति कि सेवा करने की निपुणता तो देती है किन्तु आदमी को इंसान बनाने मैं सर्वथा विफल हो रही है. खैर ये पंचायतें जाहिल लोगो का गिरोह नहीं है और न कभी रही. कम से कम आज की तुलना तो न करे जिसके आगे न भाई है न रिश्तेदारी है यदि कुछ है तो निजी स्वार्थ और धन की न बुझने वाली पिपासा का साम्राज्य ही इसकी खासियत है. पूंजी के साम्राज्य द्वारा फैलाये जहरीले कीटाणुओं से बैनर देहात की आजादी आज भी शहरी सभ्यता से कहीं अधिक दयालु है जी अपने व प्राय मैं उस जैसा बैर भाव नहीं रखती जैसा पूंजी की सभ्यता पलती है पूंजी अपने स्वार्थ के खातिर इंसान को हैवान ही बनाती है.
एक बड़ा मिथक पाल रखा है कि स्वजनों कि ये खापें दलित व महिला विरोधी हैं और इनकी दिलचस्पी गांव व गुहांड या सगोत्रीय शादियों के अतिरिक्त अन्य समाज सुधार के सवाल मैं नहीं है इस मिथक को खड़ा करके अभियान प्रवर्तक दलितों व नारी समाज को अपने स्वजनों से अलग करके फूट डालने कि रणनीति है ताकि देहात के विरुद्ध इस युद्ध मैं सफलता को सुनिश्चित किया जा सके, अन्यथा क्या बता सकते हैं कि घर कि नारी व गांव के अपने सहयोगी के प्रति यदि स्वजन चिंतित नहीं है तो वेतन भोगी कर्मचारी इनके प्रति कितना वफादार होगा? सगोत्र खाप मैं केवल सगोत्र के लोग ही बैठते हैं जबकि आम खाप किसी के भी हिस्सेदारी पर मनाही नहीं होती. अपने वर्तमान को समझने और आने वाले कल कि राह तलाशने के लिए इतिहास से बेबाक लेना बड़ी बात हैं. इतिहास के पन्नों पर खाप प्रणाली कि इबारत भी लिखी है. देश के आमजन द्वारा मिल-बैठ कर यह पद्धति आदि काल से बनी कि अपने मामले स्वय निपटाएं बहुत सीमा तक अपने घर परिवार के मामलों मैं बाहरी दखल को पसंद नहीं किया जाता था. राजा के दखल को भी नहीं. उत्तर भारत के विशाल क्षेत्र मैं यह प्रणाली एक स्वस्थ परम्परा के तौर पर उभरी. इसे गोत्र-खाप अथवा खाप का भाईचारा कहा गया जिसकी आमजन मैं कद्र अभी तक कायम है. खाप के सवाल पर वर्तमान विवाद एक समुदाय विशेष मैं शादी-विवाह से उपजे सवालों पर गोत्र-खाप की भूमिका को लेकर है जो रिश्ते परम्परा पर बंधे होते हैं. लेकिन हमला खाप प्रणाली पर हुआ है. इसे गैर कानूनी बता कर प्रतिबंधित करने की मांग उठी है. ऐसे सर्वमान्य सामाजिक रिश्तों को मनमाने अथवा बिना उसकी सहमति के बिना कानून बना कर बांधने का प्रयास फासिस्ट प्रवृति है. इसका प्रतिवाद उठेगा ही, खासकर जब विपरीत प्रवृति की तहजीब को लोगो पर जबरन लादने का प्रयास हो. इसके अब प्रयास हो रहे हैं. खाप के सवाल पर शहरी लोगो के बेमतलब आक्षेपों से तनाव बढ़ा है ग्रामीण आबादी ने इसे अपने अस्तित्व पर हमला माना है.
खाप विरोधी अभियान के प्रश्न पर एक दूसरी आवश्यक बात कहना शेष है। यह जो जिहाद चला उसके लगभग 15-20 साल का लेखा-जोखा बताता है कि ग्रामीण सभ्यता पर शहरी जीवनशैली को लादने के लिए जिस तरह के वैचारिक मिथकों का सहारा लिया गया, छद्म आधुनिकता की चासनी में लपेट कर जिस तरह के तर्क-कुतर्क गढे गये, उसका परिणाम है कि ग्रामीण पृष्ठभूमि की कमसिन पीढी को उसने डस लिया है। प्राइमरी क्लास से पांव में घंघंरू और हाथ में कटोरा थमा देने की योजनबद्ध ट्रनिंग का ही फल है कि इस तरह आंख का पानी मर जाने से इन बालाओं के शरीर से होटल सजने लगे हैं, बिन बुलाये रेला सेवा में स्वयं पितृसत्ता वाला घर त्याग कर बोल्ड होने पहुंचने लगा है और सेठ अपनी सफलता का जश्न मना रहे हैं! वे सब 20-25 धंधे खरबों की सहज कमाई कर रहे हैं जहां केवल मादा शरीर माल के रूप में आज बिकता है। यह इस करामाती अभियान का ही तो प्रताप है।
…… सुरेश देशवाल