एक निचोड़ की बात उभरती हैः वर्ष 1947 में हासिल आजादी के बाद की पांच दशकों की काल अवधि में तीब्रता से खड़े हुए मिथकों की बदौलत राजनीतिक दल/नेताओं, अखबारों/मीडिया, पढे-लिखों व ग्रामीण क्षेत्र में पनपे स्वयंभू चौधरियों की जमात पर जो आस/विश्वास लेकर आम लोग चले थे वह तिलस्मा अब टूट गया है और पर्दे की आड़ में काम कर रही धन्ना सेठों द्वारा देहात को बेजान करने की राजनीति अपने लक्ष्य में सफल हुई है। 1991 की विशेषता यह है कि पर्दे में चलती आ रही इन असली शासकों की राजनीति तब से खुल कर होनंे लगी। यह हौसला इन्होंने पा लिया। नेताओं/अगुवाओं की इस अर्थ में किरकिरी हुई कि उनके चेहरों से नकाब उतर गया कि वे असल किसके प्रतिनिधि हैं। जनगण परम शक्ति होते हुए भी असाहय से दिखने लगे और समझ ही नहीं पाये कि असहाय होने की मनोदशा उन पराये मिथकों पर विश्वास करके चलने से हाथ लगी है। पढे-लिखों ने यहां भी अपनों का साथ नहीं दिया जो उनका दायित्व बनता था। जो हो, उभरती स्थिति से जनगण को अपने बूते ही निपटने की कुव्वत हासिल करनी होगी। अन्य चारा नहीं। यह एक पहलू है।
खाप विरोधी अभियान के प्रश्न पर एक दूसरी आवश्यक बात कहना शेष है। यह जो जिहाद चला उसके लगभग 15 साल का लेखा-जोखा बताता है कि ग्रामीण सभ्यता पर शहरी जीवनशैली को लादने के लिए जिस तरह के वैचारिक मिथकों का सहारा लिया गया, छद्म आधुनिकता की चासनी में लपेट कर जिस तरह के तर्क-कुतर्क गढे गये, उसका परिणाम है कि ग्रामीण पृष्ठभूमि की कमसिन पीढी को उसने डस लिया है। प्राइमरी क्लास से पांव में घंघंरू और हाथ में कटोरा थमा देने की योजनबद्ध ट्रनिंग का ही फल है कि इस तरह आंख का पानी मर जाने से इन बालाओं के शरीर से होटल सजने लगे हैं, बिन बुलाये रेला सेवा में स्वयं पितृसत्ता वाला घर त्याग कर बोल्ड होने पहुंचने लगा है और सेठ अपनी सफलता का जश्न मना रहे हैं! वे सब 20-25 धंधे खरबों की सहज कमाई कर रहे हैं जहां केवल मादा शरीर माल के रूप में आज बिकता है। यह इस करामाती अभियान का ही तो प्रताप है।
समाज में अब जिस यौन अपराध, यहां तक कि अवसर पड़ते ही पडौस के रिश्ते में लगते बहन, भाई-भाभी, चाचा-चाची ताऊ-ताई की सीमाएं तथा भाईचारे की रेखा को लांघने वाली बाढ देखी जा सकती है। यह इस अभियान का नतीजा है जिसे ग्रामीणवासियों को दकियानूसी और मां-बाप को अपने ही बच्चों तथा पति को पत्नी का दमनकारी दुश्मन बता कर इन रिश्तो की खिल्ली उडाई और भाईचारे की रेखा को सामंती युग का पिछड़ापन कहा। अब भगा कर ले जाने, ब्लैकमेल करने, धोखाधड़ी तथा बलात्कार जैसे अपराध को कानून व पुलिस द्वारा हल करने का नाटक भी खूब करते हैं जबकि स्वयं इस बाढ के द्वार खोलने के भौंडे कुतर्क पेश करने में उर्जा लगा रहे हैं।
सोची-समझी योजना के अधीन इन लोगों द्वारा चलाया गया यह खुले सैक्स अधिकार का अभियान अन्य क्या हासिल करता? सरकारी तन्त्र की पूरी मदद से चलाए इस अभियान की यही सफलता है ताकि ये महानुभाव अपनी दिलचस्पी के व्यभिचारी सैक्स आधारित उद्योग के लिए सामाजिक मान्यता जैसी स्थिति उत्पन्न कर सकें। इन्हें परेशानी यह है कि व्यभिचार को अभी तक आम लोग व्यभिचार कह कर पुकारते हैं, रिश्तों का खून मानते हैं, भाईचारे का कत्ल मानते हैं। इनके लिए तो यह सब मात्र खोखला आत्म सम्मान या ऑनर जैसी मटमैली बात है। इन्हें गर्ज नहीं है कि इससे ग्रामीण समाज का तानाबाना घ्वस्त होता है। इसे तो वे ध्वस्त करने पर ही लगे हैं। उनका स्वार्थ इसी में सधता है। इससे ग्रामीण संस्कृति एव जीवनमूल्यों को बहुत हानि हो चुकी है जिसकी भरपाई आसान काम नहीं होगा। यह समझ लेना उचित होगा कि ग्रामीण क्षेत्र में यौन अपराधों की बाढ का स्त्रोत इस अभियान की सफलता की कहानी बनती है।
इक्कीसवीं सदी के आरम्भ से विशेषकर, देश के मीडिया ने जनता को निराश किया है। उसने अवामी पक्ष को अलविदा कह दिया। जिला स्तर की वैयक्तिक प्रकाशन-पत्रकारिता की जगह लगभग समाप्त हो गयी और उनकी जगह भी सेठिया अखबारों ने भर ली। विकल्प पत्रकारिता के छुटपुट प्रयास भी गांव की गंध से सर्वथा दूर के चितेरे बने रहे। पत्रकार जगत जनपक्ष की अपनी प्रतिबद्धता को निभा नहीं पाया। अपनी सांसों के लिए ये भी सत्तामुखापेक्षी बनते रहे अथवा धनिकों का सहारा खोजते रहे। कुछेक धंधेबाज जाति/बिरादरी के पत्रकार बने तो पूरी तरह एकांगी व स्तरहीन बन कर रह गये। समाज अथवा बिरादरी को भी कुछ लाभ नहीं हुआ। ऐसी मार्मिक दुदर्शा में आज सेठिया पत्रकारिता खुलखेल रही है।
खाप विरोधी जिहाद की शुरुआत में हम बहुत चकरा गये थे कि हो क्या रहा है? रिश्तों के कत्ल को ऑनर किलिंग की संज्ञा से सजा कर छपे पहले विवरण से लगा कि कुछ गोलमाल है; ऐसे तो पत्रकार बंधु न थे, न उनके इतने आज्ञानी होने की उम्मीदं! संवेदनशील जमात है, अब तक का अनुभव यही था। इसीलिए जनपक्षीय पत्रकारिता में कदम रखते ही प्रैस की आजादी के लिए सड़कों पर मुट्ठियां भींचने लगे थे। किन्तु बाद के समय इस क्षेत्र में पतन की लीला ने दंग कर दिया। फिर, खाप विरोधी एकतरफा अभियान ने इस मायने मे परेशान किया तो परख की बात उठी।ं
ऑनर किलिंग पर छपे पहले लेख पर लगा कि पत्रकार बिरादरी में कहीं कुछ पक रहा है। दी हिंदू ग्रुप की पक्षिक पत्रिका में वामपंथी रुझान के लेखकों/स्तम्भकारों द्वारा विवरण को पढते ही माथा ठनका कि यह तो एक भरे पूरे अभियान की शुरुआत है और अखबारों को इसका अस्त्र बनाया जा रहा है। हमारे हाथों के अस्त्र मुकाबले में शून्य ही थे। जिज्ञासा जगने के साथ विक्षोभ खड़ा होने लगा तो फ्रंटलाइन ई.पी.डब्ल्यु जैसी पत्रिका से लगाव के बावजूद वांमपंथ के इरादे पर निगाह चली गयी और संदेह न जगह बना ली कि मामला कहीं गहरा है। खीज हुई, हम कहां जाने लगे हैं?। बाद में एक आलेख इस उम्मीद के साथ इन पत्र-पत्रिकाओं को भेजा कि शायद दूसरे पक्ष को भी थोड़ी-बहुत जगह मिल जाए। नहीं, ऐसा कहीं कुछ नहीं हुआ। इसने पूरी तस्वीर को सामने खोल कर रख दिया।
शहरी सभ्यता को वहां रहने वाले कम, पूंजी पर पलने वाली व्यक्तिमुखी उद्योग-वाणिज्य प्रणाली तय करती है। इसलिए हमारे काम की चीज नहीं है। इसके उलट ग्रामीण क्षेत्र में पूंजी प्रसारण हेतु तमाम ताजा प्रयासों के फलस्वरूप घुस आई कमजोरियों के बावजूद, वहां बसने वाले निवासी कम और मुख्यत श्रम-आधारित पारिवारिक खेती-किसानी की साझी विरासतं वहां फलने वाली आपसदारी, मिलनसारी उसके भाईचारे को सींचती है और अमिट रिश्तों के जाल पर टिकी संस्कृति, जीवनमूल्य व जीवनशैली को तय करती है जिससे समाज को जिंदा रहने का बल मिलता है। दोनों के इस बुनियादी अन्तर को पीछे धकेल कर गांव को अनपढ व जहिलों या फिर कुछ दबंगों का कुंड बताने वाले मैकॉले के शिष्य आंख व अक्ल के अंधे है जो अपने छीद्रों वाले तबेले को ही पीटते रहने के अभ्यस्त है। न ऐसे पराए पाठ रमे हुए लोग देहात की समझ रखते हैं न शहरों की गलाजत के असली चेहरे को देखने की क्षमता रखते हैं। चमकदमक का मोह और सच का ज्ञान इतना ही छिछला है कि अपने व पराये के अन्तर को अनदेखा करना आदत बन गयी है। ———चौ: ज्ञान सिंह के झरोखे से