कहाँ से और कैसे पाड़ लगी हुई है किसान के घर की शांति और नेक कमाई में!
मेरे चचेरे पड़दादा होते थे| वो महीने-दो महीने में हमारे ठोले (बड़ा परवार, यानि एक ही वंशबेल की 30-40 फैमिलीज़ का ग्रुप) की सब औरतों की काउन्सलिंग करते थे| खासकर घरों में ढोंग-पाखंड-आडंबर तो नहीं घुस आये हैं इन पहलुओं को लेकर| और ठोले की हर औरत उनका सम्मान भी करती थी और गलती करते वक्त उनसे डरती भी थी| ऐसा नहीं कि अगर दादा ने किसी औरत को ज्यादा डांट-डपट लगा दी तो उसकी शिकायत नहीं होती थी, ऐसे में दादा की गलती होती तो वो सुनते भी और अपनी गलती सुधारते भी| मैं 7-8 साल का रहा होंगा, जब उनकी ऐसी अंतिम काउन्सलिंग देखी थी|
उनसे पहले यह जिम्मेदारी मेरे सगे पड़दादा के पास होती थी| हमारे ठोले का बगड़ होता था| बगड़ बोले तो “मिनी-फोर्ट्रेस” जो चारों तरफ से बंद रिहायश होती थी और सिर्फ एक मेन एंट्री-एग्जिट गेट होता था; बिलकुल वैसे ही जैसे आजकल शहरों में सील-पैक RWA सोसाइटीज होती हैं और उनका सिंगल एंट्री-एग्जिट पॉइंट होता है| उस बगड़ में दो ठोले रहते थे, एक हमारा और एक हमारी ही दूसरी नजदीकी वंश बेल का| और साथ ही इसमें दो हवेलियां बनियों की भी होती थी|
मेरी दादी बताती थी कि तुम्हारे पड़दादा का इतना रुतबा और मान्यता थी कि उनसे पूछे बिना बगड़ में मनियार चूड़ियां बेचने तक भी नहीं घुस सकता था, ढोंगी-पाखंडी-आडंबरी के घुस जाने की बात तो सपनों की ठहरी| दादी बताती थी कि तुम्हारे दादा बगड़ की एंट्री पे अपना मुड्ढा लगा के बैठे रहते थे| और पटसन के जेवड़ियाँ और रस्से बुनते रहते थे| या कोई औरत का बच्चा ज्यादा रोता तो उनके पास छोड़ जाती थी|
हुआ यूँ कि एक बार एक मनियार, बिना उनकी उपस्तिथि के बगड़ की औरतों ने बुला लिया| हर बगड़ में कुछ शरारती औरतें रहती आई हैं सदा से, दादी बताती थी कि यह तेरी दादी हवे की बहु की धमाल-चौकड़ी होती थी; जो जीभ की चटखोरी होती थी या कह ले कि “रूल्स तोड़ने में जिनको मजा आया करता है” उस टाइप का ग्रुप| तो इतने में तेरे दादा आ गए| तो बगड़ की औरतें बोली कि “हे बगड़ की चौखट पे सुकमा का बाब्बू (मेरी दादी बुआ का नाम) आ लिया है, मनियार तो अब दीवार ही टपाणा पड़ेगा| और उन्होंने वाकई में उसको पछीत लगते बगड़ में दीवार से लंघाया|
दादी यह किस्सा जब भी सुनाती थी सारे खूब हसंते थे और दादी हवे की बहु से जा के उनको छेड़-छेड़ के पूछते भी थे| और वो भी बड़ी उस्ताद चटकारे ले-ले बैठ जाती हमें पास बैठा के घस्से छोड़ने कि अरे पोता यह तो कुछ भी नहीं, हम तो यह भी करते थे, वह भी करते थे| फिर दादी सीरियस भी हो जाती थी और बोलती थी कि पर भाई वो जो था वो तेरे दादा का डर नहीं बल्कि कुनबे को एक रखने और कुनबे की कमाई को बाहरी जानवरों से जैसे किसान फसल को बचा के रखता है, ऐसे ढोंगी-पाखंडियों से बचा के रखने की सोच का सम्मान होता था| वरना यह हम भी जानते थे कि ऐसे-ऐसे कुनबे-परवार के रूखाळी बुजुर्ग ना होवें तो मोड्डे-पाखंडी सीधे घरों में घुस जावें और सारी नेक-कमाई चट कर जावें तो भी इनको सब्र ना आवे|
तो ऐसे रहती थी किसान के घर-कुनबे की शांति भी सुरक्षित और ढोंगी-पाखंडी-आडंबरियों की काली नजर से घर की नेक कमाई भी सुरक्षित|
और आज 2-3 दशक बाद ही देखता हूँ तो समाज में इस अपनी शांति और नेक कमाई को ठग-लुटेरों-पाखंडियों की नजर से बचा के रखने के सिस्टम को ना जाने किसकी नजर लगी है कि हर मर्द अपने ही घर में सहमा सा बैठा है| घर के दरवाजे आगे तो अकड़ के बैठा रहता है, ढोंगी-पाखंडी-आडंबरी आज भी उससे डरता है, परन्तु क्योंकि पाखंडी ने उसके घर में औरत के जरिये पाड़ लगा ली है तो उसकी पौ-बारह हुई पड़ी है| क्योंकि वह अब अपने घर के आगे बैठा तो है परन्तु आँखें मूँद के|
और आँखें सिर्फ घर में पिछले दरवाजे से लगी पाड़ को लेकर ही नहीं, अपितु अपने भाईयों में बैठ घर-कुनबे की सुरक्षा-इकॉनमी की बातें बतलाने तक आँखें मूंदे हुए है| दुःख होता है कि जाट-जमींदारों के ‘बगड़ कांसेप्ट’ को शहरी लोग कॉपी करके ‘रेजिडेंशियल वेलफेयर सोसाइटी’ के नाम से आधुनिकता का लेबल लगा के (मैं यूँ ही थोड़े ही अक्सर कहा करता हूँ कि सभ्यता-कल्चर गाँव से शहरों की ओर जाता है, शहरों से गाँव की ओर नहीं आता) इस्तेमाल भी कर रहे हैं| और एक यह गाँव के लोग हैं कि पता नहीं ऐसी कौनसी जिद्द खुद से बाँध बैठे हैं कि अपने पुरखों के आजमाए आज भी वाजिब फॉर्मूलों को जारी रखने में शर्म बरत रहे हैं|
बाहर आओ औ लोगो, यह शहर नाम की बीमारी कुछ नहीं; इसने सब कुछ तुमसे ही उठाया है (RWA का उदाहरण तुम्हारे सामने है), कृपया अपने घर की शांति और इकॉनमी (नेक कमाई) को ढोंगियों-पाखंडियों द्वारा लगाई इस पाड़ से मिलके रोको| वरना क्या मुंह दिखाओगे अपने पुरखों को कि जो वो दे के गए थे, बना के गए थे उसको भी नहीं संभाल के रख सके?
जय यौद्धेय!