संस्था व खाप प्रकृति से भिन्न
कुछ स्वयंभूओं को छोड़ कर आज तक खाप प्रणाली पर ऐसा कोई भी लांछन नहीं लगा कि इतनी सुदृढ़, स्वच्छ व् सामाजिक व्यवस्था प्रशनचिन्ह के दायरे में आये. लेकिन मौजूदा खाप तोड़ो अभियान ने एक नई शुरुआत कि है कि खाप को संस्था बनाकर रजिस्टरड करवा दो. मंशा साफ़ है रजिस्टरड संस्था को कभी भी रद्दी की टोकरी में डाला जा सकता है. चर्चा का सन्दर्भ खाप को लेकर है। प्रश्न यह है कि खाप को संस्था/सभा मानकर चर्चा हो अथवा उसे ग्रामीण भारत के लोगों की जीवनशैली समझा जाए; उसे उनका एक रिवाज, जीवन पद्धति माना जाए और क्यों? एक दशक से ऊपर हो गया है अपनी उधार की शक्ति का गुमान लेकर खाप के विरुद्ध जो दुष्प्रचार अभियान चला रहे हैं वे इसे संस्था/सभा का रूप मान कर बात कर रहे है। जब वे कहते हैं कि खाप विकास विरोधी, राष्ट्र-विरोधी है, इसलिए उसपर सख्त कानून बना कर पाबंदी लगे तो वे इसे एक संस्था मान कर चल रहे होते हैं। इस लहजे में बात करने वाले लोग या तो देहाती जीवन से पूरी तरह अनजान हैं या फिर उसे लांछित करके खत्म करने को लगे हुए चालाक लोग हैं। संस्था और खाप बुनिायदी तौर पर अलग हैं; खाप की प्रकृति अनौपचारिक है तो संस्था औपचारिक नस्ल की देन है। अनौपचारिक रूप से विकसित खाप पद्धति अथवा परविार, बिरादरी जैसी संस्था को कोई एक योजना से बनाता नहीं है विकसित हुई हैं। उनका कोई लिखित विधि-विधान नहीं होता आचरण-व्यवहार से जन्मी परम्परा होती है जिनसे उनका गति-विज्ञान बनता-चलता है। औपचारिक संस्था किसी निर्धारित लक्ष्य को लेकर बनाई होती हैं।
खाप पर टेढी नजर लेकर चलने वाले लोग लोग उनके महानुभानों के नाती हैं जिन्हें ग्रामीण आंचल में शादी व गौणे के बीच भेद का ज्ञान नहीं और चले हैं सब के लिए एक समान विवाह कानून बनाने! सन् 1956 में बना हिंदू विवाह कानून इसी शहरी सोच का परिणाम था। इससे समस्याएं घटी नहीं, बढी ही हैं। ज्यो ज्यों पता चलता जाता है कि यह कानून किस तरह सब के जीवन को एक सूत्र में बांधने की साजिश थी इसका विरोध उठता रहता है। इसमें ऐसे प्रावधान रखे गये जिनका हिंदू कोड बिल बनाते समय 1951 में विरोध हुआ था। वे भारत में सब को एक समान मनु के कोड पर चलने वाले हिंदू मान कर चलते हैं जबकि हिंदूओं में ऐसे समुदायों समूहों की भरमार है जिन्होंने मनु की व्यवस्था के विरुद्ध रेखा खींच कर अपनी व्यवस्था बना कर जीवन चलाया उनमें जाट बिरादरी समेत कृषि कर्म पर टिके बहुत कबीले हैं। रीति-नीति से विविधताओं भरे देश की असलियत को नकार कर सभी पर मनुवादी बाध्यताओं को राज की ताकत के सहारे लादने पर तुले हुए लोग हैं जो देश की एकता को हानि पहुंचाने का काम कर रहे हैं। राजाओं का अपना एक रिवाज, एक राजकला हैः कुत्ते को गाली दो, पागल बताओ और गोली मारो। अभियान चलाने वाले ये लोग आधुनिक राजा हैं जिन्हें पूंजी के मोह ने डस लिया है। इसलिए हम परखना चाह रहे हैं कि खाप व देहात को विकास विरोधी कहने के पीछे इनका असली मकसद क्या है?
संस्था व पद्धति (रिवाज) के अन्तर को नजरन्दाज करके जो लोग खाप पर चर्चा करते हैं वे अक्सर नासमझ हैं अथवा फिर धूर्त। नासमझ को समझाया जा सकता है, धूर्त के इरादे को पकड़ना होता है ताकि वह नुक्सान कम से कम कर सके। यहां इरादा देहात की जीवनशैली को बचाने का है जो अन्तत इस देश के भविष्य को सम्भाल कर आगे ले जाने का रास्ता है, क्योंकि शहरी जीवन ऊपरी चकाचौंध को छोड़ कर मूल में विष भरा मटका है जिसके सहारे पर कोई समाज सुख, चैन और आपसदारी से नहीं रह सकता है। जैसा पहले कहा, संस्था/सभा एक औपचारिक किस्म का संगठन है तो खाप की प्रकृति अनौपचारिक है। दोनों के बीच यह मूल भेद है। इस फर्क को समझे बिना बात करने का परिणाम भला नहीं हो सकता। इसे मिसाल के तौर पर एक पाठशाला और घर-परिवार के बीच भेद से समझ लें। पाठशाला की प्रकृति औपचारिक है, तो घर-परिवार अनौपचारिक किस्म का सामाजिक उभार है जो किसी कानून के कारण नहीं रिश्तों पर टिका है। इसी तरह गांव, बिरादरी रिश्तों पर आधारित सामाजिक गठन उभर कर अस्तित्व में आए हैं।
पाठशाला या फिर कोई राजनीतिक दल, सेवा समिति, एन.जी.ओ. मंच, सभा आदि ऐसे औपचारिक रूप में बनाए गये संगठन है जिनकी प्रकृति औपचारिक है। ऐसे संगठन या संस्था को किन्हीं सीमित संख्या के लोग एक निश्चित लक्ष्य की खातिर अपने निर्धारित विधि-विधान के तहत कानूनी रूप में बनाते हैं। उधर, जीवनपद्धति (रिवाज) अपनी स्वाभाविक गति से विकसित एक अनौपचारिक प्रकृति का तरीका है। इसे कोई निर्णयानुसार बनाता नहीं है। घर-परिवार, गांव बिरादरी अथवा खाप अनौपचरिक प्रकृति की विकसित सामूहिक शैली हैं। इनमें पदाधिकारियों की जगह नहीं है केवल रिश्तों का सरोकार है, बराबरी का बर्ताव है, लक्ष्य व हितों की साझेदारी है। आपस का लगाव/जुडाव जीवन पर्यन्त है।
संस्था में निर्र्धाित लक्ष्य की खातिर जिम्मेदारियों, अधिकारों का वर्णित डांचा तय रहता है जिसके बाहर जाने की मनाही होती है, क्योंकि इसका रूप एक कान्ट्रेक्ट का होता है। इसके उलंघन पर या तो उसका विघटन होता है या मुकदमेबाजी। इसके पदाधिकारियों की निश्चित सीमाएं बंधी रहती हैं, उलंघन लक्ष्य को काटता है तो कलह खड़ी होती है। इसमें गैर-बराबरी निहित है-पदाधिकारी व सदस्यों का अन्तर तय है। निर्धारित सीमा से बाहर सदस्य घर-परिवार में भी कलह होती है किन्तु इस कलह की प्रकृति मूल रूप में हितों की साझेदारी के दायरे में मिलनात्मक है, जब वह ध्वंसमूलक हो तो वह परिवार परिवार नहीं रहता, टूटता है। औपचारिक व अनौपचारिक रूप के गठन या रिवाज में बुंनियादी अन्तर उनके सरोकारों को तय करता है। अनौपचारिक जीवनपद्धति की खाप को शहरी सभ्यता के राजनीतिक, प्रशासनिक व न्यायिक ढांचे से बराबरी नहीं की जा सकती है न उसे एक दूसरे क्षेत्र पर जबरन लादा जा सकता है क्योंकि दोनो का आधार ही अलग-अलग है। कोई जबरन प्रयास होगा तो कलह होगी। गुलामी दौर में यह जबरन प्रयास अंग्रेजों ने किया था जिसका यहां के सामाजिक जीवन पर भयंकर प्रभाव पड़ा। घाटा लोग अभी तक उठाते आ रहे हैं। स्वतन्त्रता आन्दोलन में भी इसका विरोध हुआ।
महात्मा गांधी ने जब स्वतन्त्रता आन्दोलन की बागडोर सम्भाली तो जनता के इस दर्द को समझ लिया और ग्राम स्वराज की अपनी धारणा में इसे वाणी दी। इनके इलावा, महाराष्ट्र में तुकडोजी महाराज ने इसे अपना धर्म ही बना लिया था जिसे वे ग्रामगीता कहते थे। सही है कि ग्रामीण जीवन शैली के प्रश्न और उसके महत्व पर अलग अलग व्याख्या है। महात्मा गांधी मूलतः एक राजनीतिक लक्ष्य लेकर चल रहे थे तो तुकडोजी महाराज समाज सुधारक की भूमिका में रहे। फिर, इन दोनों से अलग हट कर ग्रामीण जीवन केे महत्व को देखने वाले लोग भी हैं। स्वतन्त्रता आन्दोलन में भी शहरी व ग्रामीण जीवन पर मतभेद चला। यह सही है कि महात्मा गांधी के ग्रामस्वराज का यह एजेण्डा बीच में कहीं रुक गया। अब खाप विरोधी अभियान असल में अंग्रेजों के दिये हुए कार्यक्रम को और आगे बढाने का पुरजोर प्रयास है। यह दुखदायी है कि चंद अपवादों को छोड़ कर सब पढे-लिखे इस साजिश में अनजाने ही सही कंधा लगाते दिखते है। परेशानी इसलिए नहीं कि ये लोग मैकॉले वाली पढायी की सृष्टि हैं, यह तो होना ही था! भाजपा ने इस स्वराज की धारणा को पलीता लगाने के लिए ही इसे सुराज में बदलने का नारा उठाया है और संस्कृत शब्दावली में शासन-प्रशासन के प्रश्न पर अंग्रेजों की लीक पीट रहे हैं। शहर और गांव का फर्क तहजीब में हैं
चकाचौंध किसी बस्ती को शहर नहीं बनाती। इसका प्राण कहीं दूसरी जगह बसा है। धूल उडती गलियां इसे गांव नहीं बनातीं, उसके जीवन का मूल आधार दूसरा है। धूल भरी गलियां तो गांव के निर्मम दोहन-शोषण के कारण है जो बड़े-बड़े तमाम किसान मसीहाओं के राज में रहने के बवाजूद नहीं मिटा हैं। शहर और गावं के बीच का फर्क दोनों की तहजीब, जीवनशैली व जीवन मूल्यों में निहित है। इस फर्क का कारण इनके काम-धंधों की मौलिक प्रकृति के कारण बनता-बिगड़ता है। पारिवारिक खेती व उद्योग-व्यापार की प्रकृति में मूल भेद इस अन्तर की जननी हैं; मामला चाहने, न चाहने का नहीं है।
शहरी तहजीब औद्योगिक-व्यापारिक कारोबार पर बनती/बिगडती है जिसमें अपने हितों तक रमा हुआ व्यक्ति मौलिक इकाई है, जबकि गांव की सभ्यता का आधार पारिवारिक श्रम की खेती व इसके साथ लगे अन्य धंधों में रमा हुआ स्वाभिमानी परिवार है, निर्लज्य स्वार्थ में डूबा हुआ व्यक्ति नहीं। दोनों में भेद है जो इनकी प्रकृति को तय करते हैं। नियम ऐसा है। खाप इसीलिए ग्रामीण जीवनशैली का भूषण है जहां धनवान की हैकड़ी नहीं चलती, बराबरी का मोल है तो भाईचारे की समझ पर जीवन चलता है। कोई करता है तो सामाजिक सरोकार चोट खाते हैं। इसका खाप नहीं, व्यक्ति विशेष दोषी है। यदि व्यक्ति विशेष के दोष से खाप को नकारा जाए तो नीयत का खोट जाहिर होता है।
…….सुरेश देसवाल