बीसवीं सदी में खापतंत्र का फॉल-डाउन कहाँ से और कैसे शुरू हुआ?:
आज निर्भया का टॉपिक सुप्रीम कोर्ट द्वारा उसके अपराधियों को फांसी देने की वजह फिर से गर्म है और जगह-जगह से बातें उठ रही हैं, कोई कह रहा है कि ऐसे बलातकारियों व् ईव-टीजिंग करने वालों को पब्लिक में कोड़े मारने चाहियें, उनके मुंह काले कर देने चाहियें आदि-आदि| दो-तीन साल पहले इसी विषय पर एनडीटीवी के एक कार्यक्रम में बॉलीवुड एक्ट्रेस प्रियंका चोपड़ा भी कह रही थी कि ऐसे लोगों का मुंह काला करके, गधे पे बैठा के पूरे मोहल्ले-गांव में घुमाना चाहिए| यानि सब कानूनी सजा से ज्यादा सामाजिक सजा की वकालत कर रहे हैं| शहरों की अधिकतर रेजिडेंशियल वेलफेयर अस्सोसिएशन्स तो यह काम बाकायदा करती भी हैं, यानि सोसाइटी में जो भी शरारती तत्व दिखा, या तो उसका बोरिया-बिस्टेर लपेट के सोसाइटी से बहार फेंक देते हैं या फिर सोसाइटी की मीटिंग में उसकी क्लास लगती है|
खाप प्रभावित इलाकों में भी यही सिस्टम चलता था परन्तु यह बंद होने पे क्यों आया? आज से दो-तीन दशक पहले तो दुरुस्त तौर पर हर गाम-तपा-खाप लेवल पे मामले की गंभीरता के लेवल के हिसाब से ऐसी सामाजिक सजाओं के किस्से अक्सर सुनने को मिल जाया करते थे| कि आज फलां गाँव में फलां गाम पंचायत ने शराबियों, बहु-बेटियों से छेड़छाड़ करने वालों को काली घाघरी पहना के सर मुंडवा के काला मुंह करके गधे पे बैठा के पूरे गाँव की फेरी लगवाई, या भरी पंचायत में दोबारा ऐसा ना करने के लिए तीन बार नाक रगड़वाई, शरारती-अपराधी द्वारा किसी का आर्थिक नुकसान कर रखा होता, तो उस नुकसान की भरपाई भी करवाई जाती थी| दहेज़ व् महिला उत्पीड़न के मामले तो बड़ी खाप पंचायतों के ख़ास अट्रैक्शन होते थे, जिनको यह पंचायतें चुटकियों में हल करके दहेज़ पीड़िता को दुरुस्त न्याय देती थी|
सनद रहे अगर न्याय देने की टीआरपी 80-90% तक भी सही हो तो उस सिस्टम को दुरुस्त माना जाता है, और खापों में यह 90 से 95% तक दुरुस्त रहती आई है| हो सकता है 5-10% मामले ऐसे भी रह जाते रहे होंगे, जहां किसी सामने नहीं आ पाई बात या तथ्य की वजह से संतुष्टि नहीं हो पाई हो| परन्तु उनमें भी ऊपरी पंचायत को गुहार लगाने की सुविधा रहती आई है| खापतंत्र में ऐसा अक्सर तपे से नीचे की पंचायतों में होने की संभावना रहती है, परन्तु तपे से ऊपर के 99% मामले सही से सुलझाए जाते रहे हैं|
तो बात हो रही थी यह सिस्टम बंद कहिये या आजकल मध्यम क्यों पड़ा हुआ है? इसकी दो वजहें हैं:
1) एनजीओज (NGOs) की वजह से, इनमें भी लेफ्ट विचारधारा ने तो खासतौर पर खापों को निशाना बनाया| लेकिन राइट-विंग के लोग भी इनको कोर्टों तक में ले गए|
2) खाप वालों के अपने भोलेपन की वजह से|
एनजीओज की वजह से कैसे? ऐसे फैसलों में दखल देने के इनके मुख्य दो हथियार होते थे, एक मानवाधिकार व् दूसरा भारतीय कानून साक्षात् सबूत मांगता है|
सबसे पहले यह मुद्दे में दखल देने लगे मानवाधिकार के नाम पर| बस इनको जहाँ “हुक्के में डिकडे (तिनके) तोड़ने होते, पहुँच जाते इस हथियार को उठा के (शुक्र है निर्भया कांड में यह हथियार इतना कामयाब नहीं रहा, परन्तु प्रक्रिया में बलात्कारियों के मानवाधिकार का मुद्दा भी उठा था; जिन्होनें इस केस को बारीकी से फॉलो किया, वो अच्छे से जानते होंगे)| परन्तु यहां इनकी नहीं चल पाई, क्योंकि कोर्ट ने ना सिर्फ अपराधी के मानवाधिकार देखे, अपितु इनको जवाब दिया कि पीड़िता निर्भया के भी मानवाधिकार देखो|
खाप जो है वो सबूत और सामाजिक फीडबैक के आधार पर फैसले करती हैं| जबकि एनजीओ वाले, इसपे सामाजिक फीडबैक को दरकिनार कर, सिर्फ सबूतों की रट्ट लगाते|
और यहीं खाप वालों का भोलापन उन्हीं का दुश्मन बन गया| क्योंकि यह एनजीओ वाले जाते और अपराधी के मानवाधिकार की गुहार लगा के खापों के फैसलों को मनचाहे शब्द पहनाने लगते, वो क्या; कि यह तो तालिबानी फैसले हैं, यह तो तुगलकी फैसले हैं, यह तो कंगारू जस्टिस है|
बस तालिबानी, कंगारू और तुगलकी शब्द सुनते ही खापों वाले सोच में पड़ जाते कि कहीं वाकई में हमसे ऐसा तो नहीं हो गया? और ऐसे धीरे-धीरे यह अपराधियों को अपराध पे सामाजिक दंड देने का रिवाज मध्यम पड़ता गया| आजकल तो कोई एकाध ऐसा किस्सा सुनने को मिलता है बस|
जबकि ऐसे पे खाप वालों का दृढ़ता से जवाब होना चाहिए था कि तुम अपराधी के मानवाधिकार तो देख रहे हो, परन्तु पीड़ित के भी तो देखो; जो इसी अपराधी ने ध्वस्त किये हैं|
काश, खापों ने इन एनजीओ वालों को इनके तर्कों के ऐसे प्रतिउत्तर दिए होते (सुनने में आया कि बहुतों ने दिए भी, परन्तु एनजीओ वालों को तो ग्रांट के लालच के चलते इनको तुगलकी दिखाना था, सो होता चला गया)| और जब इन एनजीओ वालों की मनमानी नहीं रूकती दिख रही थी तो एक बड़ी सर्वखाप लेवल की महापंचायत बुलवा के इन ग्रांटों के लालच में स्वघोषित मानवाधिकार के न्यायाधीश बने मंडरा रहे एनजीओ वालों से खुली बहस करी होती तो आज सामाजिक अपराधों की इतनी बाढ़ ना आती|
मुझे आज भी बचपन का वो जमाना याद है जब गाँव की लड़कियां-बहुएं गाँव के घाट-बुर्ज-कुँए-जोहड़ों पर कल्चरल गीत गाती हुई कार्तिक स्नान करने जाया करती थी| इतना सामाजिक अनुसाशन होता था कि गाँव के बिगड़े से बिगड़े मुस्टंडे भी उधर से गुजरने की सोच भी अंदर में नहीं आने देते थे| और यह सब किसकी वजह से था? सरकारी कानून की वजह से या किसी एनजीओ की वजह से; नहीं वह था खाप जैसी सामाजिक न्याय व्यवस्था की वजह से|
आज जब विश्व के विकसित देशों की न्याय-प्रणाली पढता हूँ तो पाता हूँ कि अमेरिका-इंग्लैंड-फ्रांस-कनाडा-ऑस्ट्रेलिया हर जगह “सोशल जूरी सिस्टम” चलता है; जिसके तहत सबूत और सोशल फीडबैक के आधार पर फैसले होते हैं और विरला ही कोई फैसला भारत वाली सिर्फ सबूत के आधार पर चलने वाली न्यायिक व्यवस्था की भांति तारीख-पे-तारीखे के फेर में लटकता है| और इतना तो लटकता ही नहीं कि बाप-दादा के केस की तारीखें बेटे-बेटियों तक को भुगतते देखते हैं|
निर्भया कांड के फैसले की इस शुभ घड़ी में हमें सिर्फ इसकी ख़ुशी भर मना के फिर से मौन नहीं हो जाना है, अपितु इस “दादा ले, पोता बरते” टाइप वाली न्यायव्यवस्था को सिर्फ सबूत आधार की, से सबूत प्लस सामाजिक फीडबैक वाले आधार की ग्लोबल स्टैण्डर्ड वाली न्यायव्यवस्था बनवाने हेतु मुहिमें चलानी होंगी| सोचना होगा कि जिस व्यवस्था ने “निर्भया कांड” जैसे अंतर्राष्ट्रीय ख्याति पा के चुके केस में भी पांच साल लगा दिए, तो आम केसों का क्या हाल होता होगा; वैसे ही थोड़े इस देश में तीन करोड़ से अधिक केस लटके पड़े हैं|
जय यौद्धेय